समाजशास्त्र का भारतीय परिप्रेक्ष
- भारत में समाजशास्त्र की औपचारिक शिक्षा 1919 ई. में बंबई विश्वविद्यालय में प्रारंभ हुई।
- सन् 1920 में कलकत्ता तथा लखनऊ विश्वविद्यालय ने भी समाजशास्त्र तथा मानवविज्ञान में शिक्षण प्रारंभ किया।
- प्रारंभिक काल में यह बिलकुल स्पष्ट नहीं था कि भारतीय समाजशास्त्र का प्रारूप क्या तथा कैसा होगा
- भारतीय समाजशास्त्री तथा मानवविज्ञानी, अधिकतर अचानक ही बन गए।
- 20वीं शताब्दी के पहले पच्चीस सालों में जिन लोगों ने इस विषय में रुचि दिखाई, उन्हें यह स्वयं तय करना था कि भारत में उसकी क्या भूमिका होगी।
भारतीय संदर्भ ने कई प्रश्न खड़े किए।
- यदि पाश्चात्य समाजशास्त्र का उद्भव आधुनिकता को समझने के प्रयास के रूप में हुआ, तो भारत जैसे देश में इसकी क्या - भूमिका होगी?
- मानवविज्ञान का उद्भव यूरोपियन समाज की 'आदिम संस्कृतियों' को जानने की उत्सुकता के संदर्भ में हुआ तो भारत में उसकी क्या भूमिका हो?
- भारत जैसे संपन्न, स्वतंत्र, नवराष्ट्र जो नियोजित विकास तथा प्रजातंत्र की ओर बढ़ रहा है, वहाँ समाजशास्त्र की क्या महत्त्वपूर्ण भूमिका हो?
श्री एल. के. अनन्तकृष्ण अय्यर
- व्यवसाय की शुरुआत एक क्लर्क के रूप में
- फिर स्कूली शिक्षक
- कोचीन रजवाड़े के महाविद्यालय में शिक्षक के रूप में नियुक्त हुए
- 1902 में कोचीन के दीवान द्वारा इन्हें राज्य के नृजातीय सर्वेक्षण में मदद के लिए कहा गया।
- उनके काम की ब्रिटिश मानवविज्ञानी ने काफ़ी प्रशंसा की
- उन्हें इसी प्रकार के सर्वेक्षण में सहायता करने के लिए मैसूर रजवाड़े में आमंत्रित किया गया।
- पहले शिक्षित मानवविज्ञानी थे, जिन्हें एक विद्वान तथा शिक्षाविद् के रूप में राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय रूप में ख्याति मिली।
- उन्होंने भारत के प्रथम स्नातकोत्तर मानवविज्ञान विभाग की स्थापना करने में मदद की।
- 1917-1932 तक वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में ही रहे।
- मानवविज्ञान में उनके पास कोई औपचारिक उपाधि नहीं थी, परंतु उन्हें इंडियन साइंस कांग्रेस के नृजातीय विभाग का अध्यक्ष चुना गया।
- जर्मनी विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डॉक्ट्रेट की उपाधि दी गई।
- कोचीन रजवाड़े की तरफ़ से उन्हें राय बहादुर तथा दीवान बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया गया।
शरत चन्द्र राय
- कानूनविद्
- अकस्मात मानवविज्ञानी बने।
- अंग्रेजी विषय में स्नातक तथा स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की थी।
- कलकत्ता के रिपन कॉलेज से कानून की डिग्री
- 1898 में राँची में ईसाई मिशनरी विद्यालय में अंग्रेज़ी के शिक्षक के रूप में कार्य
- जनजातीय क्षेत्रों का व्यापक भ्रमण किया तथा उनके बीच रहकर गहन क्षेत्रीय अध्ययन किया।
- पूरे सेवाकाल में सौ से अधिक लेख राष्ट्रीय तथा ब्रिटिश शैक्षिक जर्नल में प्रकाशित हुए।
- भारत तथा ब्रिटेन में जाने-माने मानवविज्ञानी के रूप में विख्यात हुए तथा 'छोटा नागपुर' के विशेषज्ञ के रूप में उनकी पहचान बनी।
- 1922 में उन्होंने मैन इन इंडिया नामक जर्नल की स्थापना की, जो कि अपने समय तथा प्रकार का पहला जर्नल था तथा आज भी जिसका प्रकाशन भारत में होता है।
गोविंद सदाशिव घुर्ये
- समाजशास्त्र को एक संस्थागत रूप में स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है।
- बंबई विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम स्नातकोत्तर स्तर पर समाजशास्त्र विभाग में शिक्षण कार्य की अध्यक्षता
- पैंतीस वर्षों तक इस विभाग में कार्य किया।
- इंडियन सोशयोलॉजिकल सोसायटी' की स्थापना की
- सोशयोलॉजिकल बुलेटिन नामक जर्नल भी निकाला।
- घूर्य की पहचान जाति और प्रजाति पर उनके द्वारा किए गए बेहतरीन कार्यों से होती है
- समाजशास्त्र का एक भारतीय विषय के रूप में पोषण किया।
- बंबई विश्वविद्यालय विभाग ऐसा पहला विभाग बना, जिसने सर्वप्रथम सफलतापूर्वक दो मुख्य कार्यक्रमों को लागू किया ।
1. सक्रिय रूप से शिक्षण तथा शोधकार्य का एक ही संस्था में किया जाना,
2. सामाजिक मानवविज्ञान और समाजशास्त्र को एक बृहत वर्ग के रूप में स्थापित करना।
जाति तथा प्रजाति पर घुर्ये के विचार `
- घूर्य द्वारा किए गए डॉक्ट्रेट के शोध निबंध आगे चल कर 1932 में कास्ट एंड रेस इन इंडिया के नाम से प्रकाशित हुआ।
- घूर्ये के कार्य ने लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया क्योंकि इन्होंने समकालीन भारतीय मानवविज्ञान के मुद्दों को संबोधित किया था।
घूर्य द्वारा जाति की कुछ विशेषताएं
- जाति एक ऐसी संस्था है जो खंडीय विभाजन पर आधारित है।
- जाति का निर्धारण जन्म से होता है।
- जाति की सदस्यता केवल जन्म के आधार पर मिलती है।
- जातिगत समाज सोपानिक विभाजन पर आधारित होते हैं।
- संस्था के रूप में जाति सामाजिक अंतः क्रिया पर प्रतिबंध लगाती हैं
- जातियों के लिए भिन्न-भिन्न अधिकार तथा कर्तव्य निर्धारित होते हैं।
- जाति व्यवसाय के चुनाव को भी सीमित कर देती है
- 1920 तथा 1950 ई. के मध्य भारत में समाजशास्त्र के दो प्रमुख विभाग मुंबई तथा लखनऊ में खुले।
- दोनों का प्रारंभ समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र के मिले-जुले विभाग के रूप में हुआ।
- मुंबई विभाग इस समय जी.एस. घूर्ये द्वारा संचालित हो रहा था
- लखनऊ विभाग प्रसिद्ध 'त्रिदेव' राधाकमल मुखर्जी (संस्थापक), डी.पी. मुखर्जी तथा डी.एन. मजूमदार द्वारा चलाया जा रहा था।
ध्रुजटि प्रसाद मुखर्जी
- समाजशास्त्र से पहले इतिहास तथा अर्थशास्त्र का अध्ययन किया।
- अंग्रेज़ी तथा बंगाली में काफ़ी पुस्तकें लिखीं।
- उनके द्वारा लिखित इंट्रोडक्शन टू इंडियन म्यूज़िक इस विषय में एक श्रेष्ठ कार्य है जो इस वर्ग की कालजयी रचना मानी जाती है।
- भारतीय इतिहास तथा अर्थव्यवस्था के प्रति अपने असंतोष के कारण समाजशास्त्र की ओर मुड़े।
- भारत की सामाजिक व्यवस्था ही उसका विशिष्ट लक्षण है और इसलिए, यह सामाजिक विज्ञान के लिए आवश्यक है
मेरा यह मानना है कि भारत में सामाजिकता बाहुल्य है, इसके अलावा और सब कुछ बहुत कम है। भारत का इतिहास, इसका अर्थशास्त्र, यहाँ तक कि इसका दर्शन सामाजिक समूहों के इर्द-गिर्द घूमता है, ज्यादा से ज्यादा यह भी कह सकते हैं कि यह समाजीकृत व्यक्तियों के इर्द-गिर्द है, ऐसा मैं महसूस करता हूँ।
ध्रुजटि प्रसाद मुखर्जी
- भारत में समाज की केंद्रीय स्थिति को देखते हुए, भारतीय समाजशास्त्री का यह प्रथम कर्तव्य था कि वह सामाजिक परंपराओं के बारे में पढ़े
- “सिर्फ भारतीय समाजशास्त्री के लिए एक समाजशास्त्री होना काफ़ी नहीं होता है। बल्कि उसकी प्रथम आवश्यकता एक भारतीय होना है क्योंकि वह लोकरीतियों, रूढ़ियों, प्रथाओं तथा परंपराओं से जुड़कर ही अपनी सामाजिक व्यवस्था के अंदर तथा उसके आगे क्या है, को समझ पाएगा”
परंपरा एक जीवंत परंपरा थी
- परंपरा शब्द का मूल अर्थ संचारित/प्रेषित करना है
- परंपरा की मजबूत जड़ें भूतकाल में होती हैं और उन्हें कहानियों तथा मिथकों द्वारा कहकर और सुनकर जीवित रखा जाता है।
- भारतीय संस्कृति तथा समाज पाश्चात्य अर्थ में व्यक्तिवादी नहीं हैं।
- भारतीय सामाजिक व्यवस्था की दिशा मुख्यतः समूह, संप्रदाय तथा जाति के क्रियाकलापों द्वारा निर्धारित होती है न कि 'स्वैच्छिक' व्यक्तिगत कार्यों द्वारा।
भारतीय परंपरा में परिवर्तन के तीन सिद्धांतों को मान्यता दी गई है
1. श्रुति
2. स्मृति
3. अनुभव
- भारतीय समाज में परिवर्तन का सर्वप्रमुख सिद्धांत सामान्यीकृत अनुभव अथवा समूहों का सामूहिक अनुभव था।
- उच्च परम्पराएँ श्रुति एवं स्मृति पर आधारित थी लेकिन सामूहिक अभुनावों के द्वारा उन्हें चुनौती दी जाने लगी
- डी.पी. परंपरा के समीक्षक थे जो उन्हें विरासत में मिली थी और साथ ही वे आधुनिकता के प्रशंसक आलोचक भी थे जिसके कारण उनके स्वयं के बौद्धिक परिप्रेक्ष्य को आकार प्राप्त हुआ।
अक्षय रमनलाल देसाई
- ए. आर. देसाई सीधे तौर पर राजनीतिक पार्टियों से औपचारिक सदस्य के रूप में राजनीति से जुड़े थे।
- देसाई आजीवन मार्क्सवादी रहे तथा मार्क्सवादी राजनीति में उनकी सक्रियता बड़ौदा में स्नातक की पढ़ाई करते हुए हुई।
- देसाई के पिता बड़ौदा में माध्यमिक स्तर के प्रशासनिक अधिकारी थे,
- पिता के बड़ौदा के विभिन्न स्थानों में लगातार होने वाले स्थानांतरण के कारण देसाई ने प्रवासीय जीवन जिया
- बड़ौदा में अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद बंबई विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में प्रवेश लिया जहाँ घूर्ये उनके गुरु थे।
- 1948 में उनकी थीसिस द सोशल बैकग्राउंड ऑफ इंडियन नेशनलिज्म प्रकाशित हुई जो उनके द्वारा किए गए कार्यों में सबसे बेहतरीन है।
- मार्क्सवाद भारतीय समाजशास्त्र में बहुत प्रभावशाली नहीं था
- ए.आर. देसाई को अपने विषय की तुलना में बाहर ज़्यादा नाम मिला।
- वे 'इंडियन सोशयोलॉजिकल सोसायटी' के अध्यक्ष भी रहे, भारतीय समाजशास्त्र में देसाई एक अत्यंत प्रभावी व्यक्तित्व रहे।
राज्य पर देसाई के विचार
- आधुनिक पूँजीवादी राज्य एक महत्त्वपूर्ण विषय था, जिसमें ए.आर. देसाई की रुचि थी।
- द मिथ ऑफ़ द वेलफेयर स्टेट' नामक निबंध में देसाई ने विस्तारपूर्वक इसकी विवेचनात्मक समीक्षा की है तथा इसकी कमियों की ओर ध्यान आकर्षित किया है।
राज्य की विशेषताएं
1. कल्याणकारी राज्य एक सकारात्मक राज्य होता है।
- समाज की बेहतरी के लिए सामाजिक नीतियों को तैयार तथा लागू करने के लिए अपनी शक्तियों का प्रयोग सक्रिय रूप से करता है।
2. कल्याणकारी राज्य लोकतांत्रिक राज्य होता है।
- कल्याणकारी राज्य के जन्म के लिए लोकतंत्र की एक अनिवार्य दशा होती है।
3. कल्याणकारी राज्य की अर्थव्यवस्था मिश्रित होती हैं
- निजी पूँजीवादी कंपनियाँ तथा राज्य अथवा सामूहिक कंपनियाँ दोनों साथ साथ कार्य करती हों।
मैसूर नरसिंहाचार श्रीनिवास
- भारतीयसमाजशास्त्री, एम.एन. श्रीनिवास ने डॉक्ट्रेट की उपाधि दो बार प्राप्त की-एक बंबई विश्वविद्यालय से तथा दूसरी ऑक्सफोर्ड से।
- मुंबई में घूर्ये के शिष्य थे।
- ऑक्सफोर्ड के सामाजिक मानवविज्ञान विभाग में अध्ययन के दौरान इनके बौद्धिक अभिविन्यास में बदलाव आया।
- डॉक्ट्रेट के शोध निबंध का प्रकाशन रिलीजन एंड सोसायटी एमंग द कुर्गस ऑफ़ साऊथ इंडिया के नाम से हुआ।
- ब्रिटिश सामाजिक मानवविज्ञान में प्रभावी संरचनात्मक प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य पर कार्य किया
- ऑक्सफोर्ड में नवस्थापित भारतीय समाजशास्त्र विभाग में प्रवक्ता के रूप में नियुक्ति की गई, परंतु 1951 में इस्तीफा देकर वे भारत लौट आए
- जहाँ महाराजा सायाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा में नवस्थापित समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष के रूप में अपना कार्यभार सँभाला।
- 1959 में वे दिल्ली आए जहाँ दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की जो शीघ्र ही पूरे भारत में समाजशास्त्र का महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया।
- जी.एस. घूर्ये तथा लखनऊ के विद्वानों की तरह श्रीनिवास ने भी नयी पीढ़ी के समाज को तैयार किया जो आने वाले दशकों में अपने विषय के दिग्गजों के रूप में स्थापित होने वाले थे।
श्रीनिवास के गाँव सम्बन्धी विचार
- श्रीनिवास की रुचि भारतीय गाँव तथा ग्रामीण समाज में जीवनभर बनी रही।
- यद्यपि वे गाँवों में कई बार सर्वेक्षणों तथा साक्षात्कार के लिए जा चुके थे, लेकिन एक वर्ष तक मैसूर के निकट के एक गाँव में कार्य करने के पश्चात ही इन्हें ग्रामीण समाज के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त हुई।
- गाँव में रहकर कार्य करने का अनुभव इनके व्यवसाय तथा बौद्धिक विकास के लिए महत्त्वपूर्ण साबित हुआ
गाँव पर श्रीनिवास द्वारा लिखे गए लेख मुख्यतः दो प्रकार के हैं।
1. गाँवों में किए गए क्षेत्रीय कार्यों का नृजातीय ब्यौरा
2. भारतीय गाँव सामाजिक विश्लेषण की एक इकाई के रूप में कैसे कार्य करते हैं-इस पर ऐतिहासिक तथा अवधारणात्मक परिचर्चाएं
लुई ड्यूमों
- जाति जैसी सामाजिक संस्थाएँ गाँव की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण थीं क्योंकि गाँव केवल कुछ लोगों का समूह था जो एक विशेष स्थान पर रहते थे।
- गाँव बने रह सकते हैं या समाप्त हो सकते हैं और लोग एक गाँव को छोड़ दूसरे गाँव को जा सकते हैं, लेकिन उनकी सामाजिक संस्थाएँ, जैसे जाति अथवा धर्म सदैव उनके साथ रहते हैं और जहाँ वे जाते हैं वहाँ सक्रिय हो जाते हैं
श्रीनिवास
- गाँव एक आवश्यक सामाजिक पहचान है।
- ऐतिहासिक साक्ष्य यह दिखाते हैं कि गाँवों ने अपनी एक एकीकृत पहचान बनाई है और ग्रामीण एकता ग्रामीण सामाजिक जीवन में काफी महत्त्वपूर्ण है।
- गाँव कभी भी आत्मनिर्भर नहीं थे और विभिन्न प्रकार के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक संबंधों से क्षेत्रीय स्तर पर जुड़े हुए थे।
- नव-स्वतंत्र राष्ट्र जब विकास की योजनाएँ बना रहा था, ऐसे समय में इसने भारतीय गाँवों में तीव्र गति से होने वाले सामाजिक परिवर्तन के बारे में आँखों देखी जानकारी दी।
- ग्रामीण भारत से संबंधित इन विविध जानकारियों की उस समय काफी प्रशंसा हुई क्योंकि नगरीय भारतीय तथा नीति निर्माता इससे अनुमान लगा सकते थे कि भारत के आंतरिक हिस्सों में क्या हो रहा था।